Monday, March 30, 2009

बोल-चाल की हिन्दी ज़रूरी




कार्यालय के विभिन्न विषयों के लिए निर्धारित अलग-अलग शब्दावलियों के बीच में आम बोलचाल की हिन्दी शब्दावली ठगी सी खड़ी होकर अपरिचित शब्दों को देखती रही। प्रयोगकर्ता इन शब्दों को देखकर विचित्र भाव-भंगिमाएं बनाते थे। परिणामस्वरूप अधिकांश समय यह नए शब्द प्रयोगकर्ता की देहरी तक ही पहुँच कर आगे नहीं बढ़ पाते थे और आज भी लगभग यही स्थिति है। भाषाशास्त्र के अनुसार यदि शब्दों का प्रयोग न किया जाए तो शब्द लुप्त हो जाते हैं। तो क्या राजभाषा के अनेकों शब्द प्रयोग की कसौटी पर कसे बिना ही लुप्त हो जाएंगे ? यह आशंका अब ऊभरने लगी है जबकि राजभाषा अधिकारियों की राय में इस प्रकार की सोच समय से काफी पहले की सोच कही जाएगी। राजभाषा अधिकारियों का तो कहना है कि राजभाषा की पारिभाषिक, तकनीकी आदि शब्दावलियों का खुलकर प्रयोग हो रहा है। एक हद तक यह सच भी है क्योंकि इन शब्दावलियों के प्रयोगकर्ता राजभाषा अधिकारी ही हैं। इन शब्दावलियों का अधिकांश प्रयोग अनुवाद में किया जाता है जिसे कर्मचारियों का छोटा प्रतिशत समझ पाता है। राजभाषा कार्यान्वयन की इसे एक उपलब्धि माना जाता है तथा कहा जाता है कि इन शब्दावलियों को कर्मी समझ रहे हैं अतएव इन शब्दावलियों को स्वीकार किया जा रहा है। सकार और नकार के द्वंद्व में राजभाषा ऐसे प्रगति कर रही है जैसे तूफानी दरिया में एक कश्ती। राजभाषा अधिकारी चप्पू चलाता मल्लाह की भूमिका निभाते जा रहा है।
हिंदी के साहित्यकार अपनी रचनाओं में जब कभी भी सरकारी कार्यालयों के पात्रों का सृजन करते हैं तो अक्सर वह पात्र अंग्रेज़ी मिश्रित भाषा बोलता है जबकि रचनाकार यदि राजभाषा की कुछ शब्दावलियों का प्रयोग करें तो पाठक राजभाषा की शब्दावली को सहजता से स्वीकार कर सकता है। यह मात्र एक संकेत है। राजभाषा की शब्दावली को आसान करना तर्कपूर्ण नहीं है क्योंकि सरलीकरण के प्रयास से अर्थ का अनर्थ होने की संभावना रहती है। केन्द्रीय सरकार के विभिन्न कार्यालयों, उपक्रमों तथा राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा राजभाषा कार्यान्वयन के सघन प्रयास किया जा रहा है यदि हिंदी साहित्यकार भी इस प्रयास में योगदान करें तो राजभाषा की शब्दावली अपनी दुरूहता तथा अस्वाभाविकता के दायरे से सफलतापूर्वक बाहर निकल सकती है।

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